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कभी महोबा में थी पीतल की टकसाल, मुहरें और मूर्तियां गढ़ी जाती थीं

कभी महोबा में थी पीतल की टकसाल, मुहरें और मूर्तियां गढ़ी जाती थीं, अब धूल फांक रहा है कारीगरों का हुनर

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बुन्देलखंड के वीरभूमि महोबा का पीतल उद्योग भी मुरादाबाद के पीतल उद्योग की तर्ज पर देश भर में प्रसिद्ध था लेकिन अब इसे ग्रहण लग गया है। कभी मूर्तियों की कारीगरी की अद्भुत मिसाल के लिए यहां पीतल उद्योग पड़ोसी राज्यों में जाना जाता था। मगर महंगाई की मार और सरकारी प्रोत्साहन न मिलने की वजह से अब इस उद्योग की चमक फीकी हो गई है।

महोबा: उत्तर प्रदेश के बुन्देलखंड की वीरभूमि महोबा (Mahoba News) का पीतल उद्योग कभी देश भर में विख्यात था। लेकिन लम्बे समय से पीतल उद्योग को ग्रहण लगने से इसकी चमक अब गायब होती जा रही है। हालत यह है कि पीतल उद्योग पर छा रहे संकट के बादल छटने का नाम नहीं ले रहे हैं। सैकड़ों साल पहले महोबा जिले के श्रीनगर से पीतल उद्योग की शुरुआत हुई थी।

बुन्देलखंड केसरी के नाम से विख्यात महाराजा छत्रसाल ने अपने रियासत काल में इस उद्योग को शुरू कराया था। पीतल कला के लिए युवाओं को प्रशिक्षण दिया गया था। रियासत कालीन पीतल की मुद्राएं भी यहां टकसाल में बनाई जाती थीं। बाद में कलाकारों को मूर्ति कला में पारंगत कर दिया गया। श्रीनगर के पीतल उद्योग में मूर्तियां तैयार होने लगीं। देखते ही देखते यहां से तैयार मूर्तियों की डिमांड देश के कोने-कोने तक बढ़ गई।

मूर्तिकारों के हाथों बनी मूर्तियां देश भर में जाने लगीं। बुन्देलखंड के पीतल उद्योग की बड़ी पहचान मिली लेकिन अब इस उद्योग पर संकट के बादल मंडरा गए है। कोरोना काल में लाँकडाउन इस कारोबार की कमर ही तोड़कर रख दी है। अब तो हालत यह है कि मूर्तिकारों के हाथों बनाई गई पीतल की मूर्तियां और बर्तन अब जंग खा रहे है। इसके कारोबार से जुड़े तमाम कारीगरों की हालत बदतर हो गई है। इस उद्योग की बदहाली को लेकर मूर्तिकारों का कहना है कि ओडीओपी में इसे शामिल करने पर ही पीतल उद्योग चमकेगा।

चार पीढ़‍ियों से चल रहा कारोबार

महोबा जिले के श्रीनगर के पीतल उद्योग से जुड़े मूर्ति कारोबारी शंभू भूषण सोनी ने बताया कि पीतल से मूर्तियां तैयार करना पैतृक काम है। शुरू में दादा और पिता इस कारोबार से जुड़े थे। उन्‍होंने बताया कि इस उद्योग की कला उन्हें विरासत में मिली है। पूर्वजों ने रियासत काल में तोपें बनाई थीं। उनके जरिए तैयार की गई तोपें आज भी शानदार कारीगरी की मिशाल बनी हुई हैं। बचपन में पिता और दादा से मूर्ति बनाने का हुनर सीखा। लेकिन अब पीतल उद्योग दम तोड़ रहा है। तमाम मूर्तियां बनाने वाले कारीगरों ने इस हुनर को छोड़ दूसरा काम शुरूकर दिया है।

तस्वीर देखकर किसी की भी मूर्ति बनाने में है महारथ

पीतल उद्योग से मूर्तियां खरीदने वाले पंडित त्रिपुरारी चतुर्वेदी ने बताया कि यहां के मूर्तिकारों को मूर्तिकला में बड़ी महारथ हासिल है। देवी देवताओं की मूर्तियां तैयार करने वाले मूर्तिकारों को महज तस्वीर देखकर ही लोगों का स्टैचू तैयार करने में महारथ हासिल है। उन्‍होंने बताया कि पहले कानपुर, लखनऊ, बांदा, छतरपुर, सतना समेत अन्य महानगरों से मूर्तिकार यहां मूर्तिकला की बारीकियां सीखने आते थे। लेकिन मूर्तिकला अब गुमनामी के अंधेरे की तरफ बढ़ रही है। श्रीनगर में तमाम मूर्तिकारों ने बड़ी मात्रा में मूर्तियां तैयार कर रखी हैं किन्तु खरीददार इक्का दुक्का ही आते हैं।

कच्चा माल महंगा होने पर अब फीकी पड़ी पीतल उद्योग की चमक

पहले पीतल उद्योग में तीन सैकड़ा मूर्तिकार जुड़े थे लेकिन अब इनकी संख्या घटकर सौ रह गई है। यहां के मूर्तिकारों को बड़ी उम्मीद थी कि सरकार पीतल उद्योग को संवारने के लिए बड़े काम करेगी लेकिन मूर्तिकारों की उम्मीदों पर पानी फिर गया है। तमाम मूर्तिकारों का कहना है कि महंगाई के इस दौर में पीतल समेत कच्चा माल बहुत महंगा हो गया है जिससे मूर्तियां तैयार करने में अधिक लागत आती है। मूर्तिकार बर्तन समेत अन्य सजावट के भी पीतल के आइटम तैयार कर रहे हैं। इसके बावजूद खरीददारों के न आने के कारण मूर्तियां और अन्य आइटम जंग खा रहे हैं।


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