ग्वालों का दिवारी गायन है बुंदेलखंड की पहचान, लाठी डंडे लेकर यहां जमकर थिरकते हैं ग्वाले
मप्र के बुंदेलखंड (Bundelkhand) की दिवारी और राई डंडा नृत्य की समूचे देश में अनूठी पहचान है. पौराणिक किवदंतियों से जुड़ी धार्मिक परंपराओं के परिवेश में पूरे बुंदेलखंड में दिवाली पर्व पर दिवारी गायन-नृत्य और मौन चराने की अनूठी परंपरा देखती ही बनती है. दिवारी गायन करते हुए ग्वाल समाज के लोग भारी संख्या में पवित्र सिद्ध क्षेत्र जागेश्वरनाथ की नगरी बांदकुपर धाम पहुंचे जहां ग्वाल समाज के लोग करीब 3 घण्टे तक दिवारी गायन करते हुए ढोल नगाड़ों की धुन पर जमकर थिरके. इस दिन गोवंश की सुरक्षा, संरक्षण, संवर्धन और पालन का संकल्प का कठिन व्रत लिया जाता है.
लाठी डंडे लेकर नाचे ग्वाले
दिवारी और राई, डंडा नृत्य का एक अद्भुत नजारा बुंदेलखंड की आस्था का केंद्र बांदकुपर जागेश्वर नाथ धाम मंदिर में देखने को मिला. यहां समूचे बुंदेलखंड (Bundelkhand) से लोग यहां दर्शन, नृत्य प्रदर्शन करने के लिए पहुंचते हैं. दिवारी नृत्य में युद्ध कला का प्रदर्शन करते हुए अपने प्रतिद्वंदियों पर लाठियों से प्रहार करने की परंपरा लंबे समय से चली आ रही है.
जानें नृत्य की खासियत
इस नृत्य की खासियत यह है कि सबके सिर पर मयूर पंख और हाथों में लाठी होती है. पैरों में घुंघरू और कमर में पट्टा बांधा जाता है.आंखों के इशारों पर लाठी से प्रहार किया जाता है. पुरातत्व अधिकारी सुरेंद्र चौरसिया ने बताया कि दीप उत्सव के बाद बुंदेलखंड (Bundelkhand) में एक परंपरा रही है गौसेवा, गौ संरक्षण और गौ माता की महत्वता को प्रदर्शित करते हुए काफी लंबे समय से यादव समुदाय के लोग गोवंश का पालन अधिक मात्रा में करते आए हैं. दीपू स्व कार्यक्रम के बाद खुशी और उत्साह का माहौल बनाते हुए यह ग्वाल नृत्य करते हैं, जिसमें पैरों में घुंघरू, ढोलक और हाथों में कुल्हाड़ी लेकर यह नृत्य किया जाता है.
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