मौर्यकाल (History of Bundelkhand)
मौर्य साम्राज्य भारतवर्ष का प्रथम सार्वभौमिक साम्राज्य था, जो बुंदेलखंड (Bundelkhand) की मिट्टी में पनपा। इसकी स्थापना के बाद ही भारतीय इतिहास में एक नए युग का शंखनाद हुआ। यह इतिहास में पहला मौका था, जिसमें पूरा भारत राजनीतिक तौर पर एकजुट रहा था। मौर्य साम्राज्य, भारतीय इतिहास का वह साम्राज्य है, जिसकी उत्पत्ति शास्त्र और शस्त्र के संयोग की शक्ति का अद्भुत, अभूतपूर्व एवं सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं। शास्त्र ने शस्त्र को सामर्थ्य और शक्ति दी, जिसके प्रमाण इतिहास के पन्नों में सुनहरे अक्षरों से अंकित हैं।इस अवधि का इतिहास लेखन बेहद स्पष्ट है, जिसका सम्पूर्ण श्रेय कालक्रम और स्रोतों में सटीकता को जाता है। इसके साथ ही स्वदेशी और विदेशी साहित्यिक स्त्रोतों की भी पर्याप्त उपलब्धता थी। इस अवधि के इतिहास लेखन के लिए इस साम्राज्य ने बड़ी संख्या में अभिलेख छोड़े। इसके अलावा, मौर्य साम्राज्य के साथ जुड़े कुछ महत्वपूर्ण पुरातात्विक निष्कर्ष पत्थर की मूर्तियाँ थी, जिसे मौर्य कला का एक जबरदस्त और नायाब उदाहरण माना जाता है। कुछ विद्वानों का मानना था कि अशोक शिलालेख पर मौजूद संदेश अधिकांश शासकों की तुलना में पूरी तरह से अलग थे। उक्त संदेशों को अशोक के शक्तिशाली और मेहनती होने का प्रतीक माना जा सकता है।
मौर्य साम्राज्य की स्थापना चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य की सहायता से की थी। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त मौर्य का उपयोग नंद राजवंश के विघटन के लिए साधन के रूप में किया। वस्तुतः मौर्य साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक चाणक्य था, जो चाहता तो स्वयं सम्राट बन सकता था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। उसने शास्त्र संवत् व्यवहार को अपनाया और चन्द्रगुप्त मौर्य को पाटलिपुत्र का जिम्मा सौंप दिया और स्वयं उसका सलाहकार (प्रधानमंत्री) बन गया। इस प्रकार, मौर्य साम्राज्य का प्रथम शासक चन्द्रगुप्त मौर्य हुआ। मौर्य साम्राज्य ने कुल 137 वर्षों (322 ईस्वी पूर्व-184 ईस्वी पूर्व) तक शासन किया।
मौर्य साम्राज्य में लगभग 9 या 10 शासकों का राज हुआ। चन्द्रगुप्त मौर्य, बिन्दुसार और अशोक जैसे महान शासकों ने मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत ही शासन किया। मौर्य साम्राज्य का अंतिम शासक 'वृहदृथ' था, जिसकी हत्या 184 ईस्वी पूर्व में उसके सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने कर दी थी। लगभग 137 वर्षों के मौर्यों के सुदीर्घ शासनकाल में सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, भाषा, शिक्षा, साहित्य एवं कला आदि सभी क्षेत्रों में मौर्यकालीन संस्कृति की अभूतपूर्व विशेषताएँ देखने को मिलीं।
स्त्रोत
मौर्य इतिहास के बारे में दो प्रकार के स्त्रोत उपलब्ध हैं: साहित्यक और पुरातात्विक है। साहित्यक स्त्रोतों में कौटिल्य का अर्थशास्त्र, विशाखा दत्ता का मुद्रा राक्षस, मेगास्थेनेस की इंडिका, बौद्ध साहित्य और पुराण शामिल हैं। पुरातात्विक स्त्रोतों में अशोक के शिलालेख और अभिलेख और वस्तुओं के अवशेष जैसे चाँदी और ताँबे के छेद किए हुए सिक्के शामिल हैं।
1. साहित्यक स्त्रोत:
a) कौटिल्य अर्थशास्त्र
यह पुस्तक कौटिल्य (चाणक्य का दूसरा नाम) के द्वारा राजनीति और शासन के बारे में लिखी गई है। यह पुस्तक मौर्य काल के आर्थिक और राजनीतिक स्थिति को स्पष्ट करती है। कौटिल्य, मौर्य वंश के संस्थापक चन्द्र गुप्त मौर्य का प्रधानमंत्री था।
b) मुद्रा राक्षस
इस पुस्तक का लेखन गुप्ता काल में विशाखा दत्ता द्वारा किया गया। यह पुस्तक स्पष्ट करती है कि चन्द्रगुप्त मौर्य ने किस तरह सामाजिक आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालने के अतिरिक्त, चाणक्य की मदद से नन्द वंश को पराजित किया था।
c) इंडिका
इंडिका की रचना मेगास्थेनेस द्वारा की गई थी। वह चंद्र गुप्त मौर्य की सभा में सेलेकूस निकेटर का दूत था। यह मौर्य साम्राज्य के प्रशासन, 7 जाति प्रणाली और भारत में गुलामी न होने के बारे में दर्शाती है। हालाँकि, इसकी मूल प्रति खो चुकी है। इसे पारंपरिक यूनानी लेखकों, जैसे- प्लुटार्च, स्ट्राबो और अर्रियन ने अपने लेखों में उदाहरणों के रूप में सहेजा हुआ है।
d) बौद्ध साहित्य
बौद्ध साहित्य, जैसे- जातक, मौर्य काल के सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालता है, जबकि बौद्ध वृतांत महावमसा और दीपवांसा अशोक के बौद्ध धर्म को श्रीलंका तक फैलाने की भूमिका के बारे में बताते हैं। दिव्यवदं, तिब्बत बौद्ध लेख अशोक के बौद्ध धर्म का प्रचार करने के योगदान के बारे में जानकारी देते हैं।
e) पुराण
पुराण मौर्य राजाओं और घट्नाक्रमों की सूचि के बारे में स्पष्टता प्रदान करते हैं।
2. पुरातात्विक स्त्रोत:
a) अशोक के अभिलेख
अशोक के अभिलेख, भारत के विभिन्न उप महाद्वीपों में शिलालेख, स्तंभ लेख और गुफा शिलालेख के रूप में पाए जाते हैं। इन अभिलेखों की व्याखाया जेम्स प्रिंकेप द्वारा 1837 AD में की गई थी। ज्यादातर अभिलेखों में अशोक की जनता को लेकर घोषणाएँ शामिल हैं, जबकि कुछ में अशोक द्वारा बौद्ध धर्म को अपनाने के बारे में जानकारी निहित है।
b) वस्तु अवशेष
वस्तु अवशेष, जैसे- NBPW (उत्तत काल के पॉलिश के बर्तन) चाँदी और ताँबे के छेद किए हुए सिक्के मौर्य काल पर प्रकाश डालते हैं।
सामाजिक स्थिति
मौर्यकाल का सामाजिक जनजीवन मुख्यतः सनातन ब्राह्मण धर्म द्वारा विहित सामाजिक विधि-विधान पर आधारित था। अशोक के शासनकाल में बौद्ध धर्म संस्कृति का अत्यधिक प्रभाव रहा। इसके बावजूद मौर्यकालीन समाजिक व्यवस्था की मूलभूत आधारशिला ब्राह्मण धर्म द्वारा निश्चित निर्धारित सामाजिक प्रणालियों पर ही चलता रहा।
धार्मिक स्थिति
मौर्यकाल धार्मिक सहिष्णुता एवं समन्वय का समय था। इस काल में वैदिक धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं अन्य अनेक धार्मिक दार्शनिक विश्वास विद्यमान थे। इसके बावजूद इनमें आपस में कोई टकराव नहीं था। सभी अपने-अपने स्थान पर धार्मिक क्रियाकलापों में संलग्न थे। स्वयं मौर्य सम्राट भी विविध धर्मों को मानते थे। सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य वैदिक धर्म में विश्वास रखते थे और जीवन के अंतिम समय में जैन धर्म को मानने लगे थे।
वहीं महान मौर्य सम्राट अशोक बौद्ध धर्म का अनुयायी था और उसने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के अनेक कार्य किए। मौर्य शासक 'सम्प्रति' जैन धर्म का अनुयायी था, लेकिन उन्होंने अपनी प्रजा को किसी धर्म विशेष को मानने के लिए बाध्य नहीं किया।
वर्णाश्रम व्यवस्था
मौर्यकालीन संस्कृति की सामाजिक व्यवस्था की आधारशिला वर्णाश्रम व्यवस्था थी। मौर्यकाल में चार वर्णों में विभाजित समाज में आश्रम व्यवस्था का संचालन सुचारू तरीके से होता था। समाज में लोग ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास आश्रमों का पालन करते थे। हालाँकि इस व्यवस्था का प्रचलन उच्च वर्णों में अधिक था। मौर्यकाल में वर्ण व्यवस्था सुनियोजित थी और इसमें कठोरता नहीं थी।
अशोक के कर्म के सिद्धांत पर जोर देने तथा बौद्ध एवं जैन धर्मों के प्रभावों के कारण वर्ण व्यवस्था निश्चित रूप से लचीली थी, लेकिन यह भी माना जाता है कि वर्ण व्यवस्था, जाति व्यवस्था में परिवर्तित होकर जन्म पर आधारित हो गई थी। सभी चारों वर्णों में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च था। यह बौद्धिक वर्ग अध्ययन, शिक्षा-दीक्षा एवं शासन का सलाहकार हुआ करता था, जो धर्म एवं संस्कृति का संरक्षक तथा संवर्धक था। कौटिल्य एवं मेगस्थनीज से ज्ञात होता है कि ब्राह्मणों का जीवन 'सादा जीवन-उच्च विचार' की युक्ति को चरितार्थ करता था।
अशोक के तीसरे शिलालेख में इस बात का उल्लेख किया गया है कि ब्राह्मणों और श्रवणों की सेवा करना उत्तम है। ब्राह्मण प्रशासन के अनेक पदों पर आसीन थे। मौर्यकाल में क्षत्रिय सामाजिक व्यवस्था के प्रमुख अंग थे। क्षत्रिय शासक वर्ग था। स्वयं सम्राट क्षत्रिय वर्ण के थे। क्षत्रिय शासकीय सुविधा भोगी, प्रशासनिक पदों पर आसीन, सैन्य क्रिया-कलापों में संलग्न रहता था। वैश्य, मौर्यकाल की सामाजिक व्यवस्था का एक धन-आधारित वर्ग था। व्यापार एवं वाणिज्य का संपूर्ण कार्य वैश्यों के हाथों में था। कुल मिलाकर मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था पर वैश्यों का आधिपत्य था।
मौर्यकालीन समाज में उत्तम स्थिति के साथ वैश्य व्यापार, शिल्प एवं कृषि कर्म में संलग्न थे। मौर्यकालीन सामाजिक व्यवस्था में शूद्रों का चौथा स्थान था। शूद्र वर्ग, श्रम कृषि एवं शिल्प व्यवसाय करते थे। कौटिल्य शूद्रों को आर्य भी कहा जाता है। शूद्रों को सम्पत्ति का अधिकार था। शूद्रों को कौटिल्य से सेना में सैनिक के रूप में कार्य करने की अनुमति प्राप्त हुई थी। मौर्यकाल में शूद्रों को नए विजित क्षेत्रों में जमीनें देकर कृषि करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। शूद्रों से समाज में विष्टि (एक प्रकार की बंधुआ मजदूरी) लेने के प्रमाण भी मिलते हैं।
मौर्यकाल में शूद्रों में सामाजिक एवं धार्मिक निर्योग्यताएँ निहित थी, लेकिन इन पर कठोर प्रतिबंध नहीं था। अशोक के अभिलेखों में शूद्रों से अच्छे व्यवहार के निर्देश मिलते हैं। मौर्यकालीन समाज में वर्ण संकर जातियाँ भी विद्यमान थीं। कौटिल्य ने 15 प्रकार की वर्ण संकर जातियों का उल्लेख किया है, जिनका प्रादुर्भाव अनुलोम-प्रतिलोम विवाहों तथा सामाजिक विधि-विधानों के उल्लंघन से हुआ होगा, ऐसा माना जाता है। शूद्र मुख्य बस्ती से दूर अलग बस्ती में निवास करते थे। इन पर अनेक प्रकार के सामाजिक एवं धार्मिक प्रतिबंध थे। यूनानी लेखकों एवं मेगस्थनीज ने मौर्यकालीन समाज में सात जातियों का उल्लेख किया है, जिनमें दार्शनिक, कृषक सैनिक, अहीर, कारीगर, निरीक्षक, मंत्री एवं परामर्शदाता शामिल हैं।
मुद्रा
मौर्य साम्राज्य में ठोस मुद्रा प्रणाली की स्थापना हो चुकी थी। कौटिल्य ने मुद्रा व्यवस्था को साम्राज्य में सुचारू रूप से संचालित होते रहने के लिए मुद्रा एवं टकसाल विभाग की स्थापना की थी, जिसका प्रमुख 'लक्षणाध्यक्ष' कहलाता था। मुद्राओं का परीक्षण 'रूपदर्शक' नामक अधिकारी करता था। कोई व्यक्ति धातु एवं निर्धारित शुल्क देकर सिक्का बनवा सकता था। राज्य में सोने-चाँदी एवं ताँबे की मुद्राएँ चलती थी।
मौर्य साम्राज्य की राजकीय मुद्रा 'पण' थी। एक पण 3/4 तोले के बराबर चाँदी का सिक्का हुआ करता था। अधिकारियों को 'पण' में ही वेतन दिया जाता था। मौर्य साम्राज्य का सर्वाधिक प्रचलित सिक्का चाँदी का 'कार्षापण' था। सोने का सिक्का-निष्क एवं सुवर्ण, चाँदी का पण या रूप्यरूप, कार्षापण, धरण, शतभान, ताँबे का माषक एवं काकणी कहलाता था। मयूर, पर्वत अर्द्धचन्द्र चिन्ह छाप वाली 'आहत रजत मुद्राएँ' मौर्य साम्राज्य में खूब प्रचलित थीं।
भाषा, शिक्षा एवं साहित्य
मौर्यकाल में भाषा, शिक्षा एवं साहित्य प्रगतिशील अवस्था में थे। मौर्यकाल में सामान्य जनता की भाषा पाली (प्राकृत) थी। अभिजात वर्ग एवं उच्च वर्णों में संस्कृत भाषा बोली जाती थी। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय संभवतः संस्कृत राजकीय भाषा थी, लेकिन अशोक के शासन काल के दौरान पाली को राजकीय भाषा घोषित कर दिया गया था। बहुसंख्यक आम जनता की भाषा होने के कारण ही अशोक के अधिकांश अभिलेख पाली भाषा में लिखे गए।
मौर्यकाल में शिक्षा के लिए अलग से कोई विभाग नहीं था। मठ एवं विहार भी शिक्षा प्रदान करने के केन्द्र थे। प्राचीनकाल की तरह मौर्यकाल में भी शिक्षा के स्त्रोत गुरूकुल और आश्रम ही थे। मौर्य प्रशासन शिक्षा दान करने वाले आश्रमों, गुरूकुलों, मठों एवं विहारों को मुक्त हस्त दान देता था। बौद्धों एवं जैनियों के धार्मिक केन्द्र भी शिक्षा प्रसार का कार्य करते थे। मौर्यकाल में तक्षशिक्षा, काशी, उज्जयिनी, मथुरा आदि शिक्षा के बड़े केन्द्र थे। तक्षशिला विश्वविद्यालय तो इस समय शिक्षा का विश्व प्रसिद्ध शिक्षा केन्द्र था, जहाँ विश्वभर से छात्र शिक्षा लेने आते थे। स्वयं चाणक्य भी तक्षशिला विश्वविद्यालय से शिक्षित थे।
कुल मिलाकर मौर्यकाल में शिक्षा का स्तर बहुत ऊँचा था। सामान्य जनता, राज्य द्वारा प्रजा को जारी किए गए राज्यादेशों को समझ सकती थी। अशोक द्वारा साम्राज्य में प्रजा के दिशा-निर्देश हेतु जारी किए गए अभिलेखों, शिलालेखों स्तंभ लेखों आदि को प्रजा पढ़ सकती थी। यूनानी लेखकों द्वारा अपने लेखों में यह स्पष्ट किया गया है कि मौर्य साम्राज्य के राजमार्गों पर दूरी सूचक पत्थर लगे होते थे और उन पर एक निश्चित दूरी अंकित होती थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि सामान्य जनता साक्षर थी। ब्राह्मण धार्मिक शिक्षा संस्कृत भाषा में दी जाती थी। ब्राह्मण साहित्य भी संस्कृत भाषा में ही था। मध्यदेश में मागधी भाषा बोली जाती थी। मौर्यकाल में सर्वाधिक ब्राह्मी लिपि का प्रचलन था, जिसकी लेखन शैली बाँए से दाँए थी। अशोक के अभिलेखों में सर्वाधिक ब्राह्मी लिपि का ही उपयोग किया गया है। अशोक के अभिलेख चार लिपियों में मिलते हैं, जिनमें ब्राह्मी, खरोष्ठी, अरामाईक एवं ग्रीक लिपि शामिल हैं।
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