उत्तर प्रदेश के दक्षिण और मध्य प्रदेश के उत्तरी इलाके के बुंदेलखंड क्षेत्र को इसकी एकता के लिए जाना जाता है। उत्तर प्रदेश के सात और मध्यप्रदेश के छह जनपदों से मिल कर बने बुंदेलखंड को सांस्कृतिक विभिन्नता के बावजूद अखंडता के लिए जाना जाता है। लेकिन यदि यहां बात गरीबी और भुखमरी की जाए तो बड़ी संख्या में असहाय लोगों की भीड़ बुंदेलखंड में दिखाई देती है। नीति आयोग के आंकड़ों के अनुसार बुंदेलखंड का टीकमगढ़ जिला 50.3 फीसद गरीबी दर के साथ सर्वोच्च स्तर पर है। साथ ही आंकड़े स्पष्ट करते हैं कि दतिया एवं पन्ना की लगभग पचास फीसद आबादी गरीबी रेखा के नीचे आती है। लाखों परिवारों के सामने भरण-पोषण का संकट उत्पन्न हो गया है।
सवाल है कि सरकार द्वारा चलाई जा रही नीतियां कहां है? यदि वे वास्तव में कारगर हैं तो फिर यह भुखमरी का संकट क्यों मंडरा रहा है? वास्तव में सार्वजनिक वितरण प्रणाली सरकारी फाइलों में तो चला दी गई, आंकड़ों में भी दर्शा भी दिया गया है कि सभी गरीब परिवार के लिए योजना सहायक सिद्ध हो रही है, किंतु वास्तव में इस योजना का लाभ पात्र लोग कम और अपात्र लोग ज्यादा उठा रहे हैं। मनरेगा के अंतर्गत किसको रोजगार मिलना चाहिए, वे अभी भी बेरोजगार बैठे है।
बुंदेलखंड क्षेत्र में इस गरीबी का मुख्य कारण हर क्षेत्र में कालाबाजारी भी है। जो कार्य मजदूरों से करवाए जाने चाहिए, वे शासन प्रशासन द्वारा मशीनों से करवाए जा रहे हैं। इससे रोजगार ना मिलने के कारण बुंदेलखंड के गरीब परिवार बड़े शहरों में रोजगार की तलाश में साल के छह से आठ महीने पलायन को मजबूर होते हैं। जरा सोचिए, आज जब बुंदेलखंड में इतनी ज्यादा गरीबी छाई हुई है, लोगों के पास रोजगार नहीं है, भुखमरी चरम सीमा पर है, आए दिन लोग कुपोषण का शिकार हो रहे हैं तो इन गंभीर असीमित समस्याओं का निवारण कौन करेगा? सरकार की तथाकथित नीतियां या हम बुंदेलखंड के जागरूक नागरिक? हमारा कर्तव्य है, हम हर सफल प्रयास करें लोगों को सरकारी नीतियों, उनके अधिकारों से अवगत करवाएं ताकि पात्रों की बजाय वास्तविक असहाय लोग इसका लाभ उठा सकें।
साभार: श्रेया शुक्ला, दिल्ली (जनसत्ता)
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