बुंदेलखंड में कांडरा नृत्य धोबियों का नृत्य है। इस नृत्य को फिरकी के समान घूम-घूम कर नाचा जाता है। घेरे को बुंदेली में कौड़ा कहा जाता है। इसलिये इस नृत्य का नाम कांडरा नृत्य पड़ा। कांडरा नृत्य में नाचने वाला मठा बिलोने की कड़ैनियाँ (रस्सी), जो घेर-घेर घूमती है, के समान घूम-घूमकर नृत्य करता है। नृत्य करने वाले की वेशभूषा बड़ी मनोहर होती है। वह सफेद रंग का बागा (पैरों तक नीचे कुर्ता) पहनता है, सिर पर पाग बाँधता है और पाग में हरे पंख की कलगी लगी रहती है तथा पैरों में घुंघरू बाँधा जाता है। इस नृत्य में ’बिरहा’ गीत गाये जाते हैं। कांडरा नृत्य की पैठ सम्पूर्ण बुंदेलखंड में है। इस नृत्य को धोबियों के यहाँ शादियों में अनिवार्य रूप से नाचा जाता है। यहाँ तक की इस नृत्य के अभाव में कभी-कभी बरातें तक वापस कर दी जाती है।
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नृत्य के साथ गाये जाने वाला एक बिरहा गीत पठनीय है-
’सौने होय तो पैरियो, नातर नागे भलै दोई कान।
छीता होय तो व्याइयो, नातर क्वांरे श्री भगवान।
रानीपुरा में मृदंग बजो रे, और मऊ में बजी मौचंग।
नाचत आवत पुरानी मऊ की, बरेठिन ऊके सासऊ गोरे अंग।
अरे भाले की अनी से टोडरब पलेरा, भाले की अनी से।
घर नइया रइया राव जू, घरै नइयां किशोरी महाराज।
घरे तो नइयाँ रनदूला, आड़ी करत तरवार। भाले की अनी। ....
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