चैत्रमास के दूसरे (शुक्ल) पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होने वाला यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। चैत्र और क्वांर मास का नवदुर्गा पूजन ’जवारों का पर्व’ कहलाता है, जो दोनों माहों के शुक्ल पक्षों में प्रतिपदा से लेकर नवमी तक मनाया जाता है। ’जवारे’ शक्तिपूजा के रूप में असीम श्रद्धा के परिचायक है। चैत्र और क्वांर के महीनों में नवदुर्गा की समाप्ति पर नवमी को ये जलूस निकाले जाते हैं।
शैला नृत्य (बुन्देलखण्ड लोकनृत्य)
निम्नवर्गीय जातियों के बच्चे, युवक और वृद्ध अपने मुखों तथा अन्य अंगों में त्रिसूल या सांग छिदाकर, मोरपंखों के चंवर, मस्ती से हिलाते-झूमते माता के मंदिर तक जाते हैं। इनके पीछे-पीछे घटो (घड़ों) को, जिनमें गेहूँ के ’जवारे’ उगे होते हैं, सिर पर धारण किए हुए नर-नारियाँ माता के भजन गाते जुलूस में चलते हैं-
दिन की ऊरन, किरन की फूटन,
सुरहिन बन को जायें हो माँय।
एक बन चाली सुरहिन, दो बन चाली,
तिज बन पोंची जाय हो माँय।।
भंडैती परम्परा उत्तरप्रदेश की एक लोक प्रचलित नाट्य विधा
इस गायन को ‘अंचरी’ कहा जाता है। यह पर्व शक्ति-पूजा का पर्व कहलाता है क्योंकि शक्ति की प्रतीक-देवी दुर्गा इस पर्व की इष्ट देवी हैं। ’जवारे’ परस्पर सद्भाव की दृष्टि से एक-दूसरे को बांटे जाते हैं।
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