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ओरछा के रामराजा मंदिर का इतिहास



इसका इतिहास 15वीं शताब्दी से शुरू हुआ था, जब इसकी स्थापना रुद्र प्रताप सिंह जू बुन्देला ने की थी जो सिकन्दर लोदी से भी लड़ चूका था इस जगह की पहली और सबसे रोचक कहानी रामराजा मंदिर की है। महाराज मधुकरशाह कृष्ण भक्त थे और महारानी कुंअर गनेश रामभक्त थी। रानी गनेश कुंवर वर्तमान ग्वालियर जिले के करहिया गांव की राजपूत थीं। एक दिन महारानी और राजा के बीच अपने दो आराध्य देव की प्रशंसा और उनके दर्शनों को लेकर बहस हुई। राजा ने महारानी कुंअर गनेश को चुनौती देते हुए कहा कि अगर अपने आराध्यदेव की इतनी बड़ी भक्त हो तो अपने राम को अयोध्या जाकर ले क्यों नहीं आती। उन्होंने अपने पति से अपने इष्ट देव को लेकर आने का प्रण किया और कहा कि अगर वह अपने इष्ट देव को लेकर आने मे असफल हुई तो अयोध्या में ही अपने प्राण त्याग देगी।




इसके बाद महारानी ओरछा से निकल कर अयोध्या की और चल पड़ी। महारानी अयोध्या में सरयू नदी के किनारे तपस्या करने बैठ गई। 7 दिनों की कठोर तपस्या के बाद जब भगवान राम के दर्शन महारानी को नहीं हुए तो उन्होंने सरयू नदी में अपने प्राण देने का निष्चय किया। तभी भगवान् राम बाल रूप में प्रकट हुए और महारानी को दर्शन दिए। महारानी ने उनसे ओरछा चलने को कहा और भगवान् राम भी ओरछा चलने को राज़ी हो गए लेकिन भगवान् राम ने महारानी के सामने अपनी तीन शर्ते रखी। पहली शर्त यह थी की जहा हम जा रहे है वहा के हम राजा होंगे दूसरी शर्त हम आपके साथ ओरछा पैदल चलेंगे वो भी मुख्य नक्षत्र में जो महीने में एक बार आता है और तीसरी शर्त की अगर हम एक बार कही बैठ गए तो उठेंगे नहीं।



महारानी ने उनकी शर्ते मान ली और भगवान् राम मूर्ति स्वरुप उनकी गोद में बैठ गए और रानी मुख्य नक्षत्र में ओरछा की और चल पड़ी। महारानी 8 माह और 28 दिनों में सिर्फ मुख्य नक्षत्र मे पैदल चलकर ओरछा पहुंची। ओरछा पहुंचने से भगवान् राम ने महाराज मधुकरशाह को सपना दिया की रानी भगवान् राम को लेकर ओरछा आ रही है तब महाराज ने भगवान् राम के लिए मंदिर बनवाने का काम आरम्भ करवा दिया जिसे आज हम उस मंदिर को चतुर्भुज मंदिर के नाम से जानते है।

महारानी भगवान राम को लेकर मंदिर बनने से पहले पहुंच गयी जिससे महारानी भगवान् राम को अपने महल ले आई और अपने महल के भोजन कक्ष जिसे हम किचेन(रसोई घर) कहते है वहा ले आई और कुछ समय के लिए मूर्ति को महल के भोजन कक्ष में स्थापित किया गया। लेकिन जब मंदिर बनकर तैयार हुआ तब मूर्ति की स्थापना के लिए जब मूर्ति को उठाया गया तो मूर्ति अपने जगह से हिली ही नहीं इसे ईश्वर का चमत्कार मानते हुए महल को ही मंदिर का रूप दे दिया गया और इसका नाम रखा गया राम राजा मंदिर।
जिसे आज हम राम राजा मंदिर कहते है तभी से भगवान श्रीराम, जानकी जी और लक्ष्मन जी की मूल प्रतिमाएं ओरछा के रामराजा मंदिर मे विराजमान हैं।

आज इस महल के चारों ओर ओरछा शहर बसा है और राम नवमी पर यहां हजारों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं। वैसे, भगवान राम को यहां भगवान मानने के साथ-साथ यहां का राजा भी माना जाता है, क्योंकि उस मूर्ति का चेहरा मंदिर की ओर न होकर महल की ओर है।आज भी भगवान राम को राजा के रूप में(राम राजा सरकार) ओरछा के इस मंदिर में पूजा जाता है और उन्हें गार्डों की सलामी देते हैं।



444 वर्ष पुरानी परम्परा के अनुसार भगवान श्रीराम को प्रतिदिन सुबह और शाम सशस्त्र बल द्वारा उन्हें ‘‘गार्ड आफ ऑनर’’देने की परम्परा का पालन राज्य सरकार द्वारा किया जाता है। रामनवमी और विवाह पंचमी के तीन दिनों तक के लिए भगवान श्रीराम प्रभु और सीता सिंहासन को छोडकर दालान मे झूला पर बिराजमान होकर सामान्य लोगों को दर्शन देते हैं और इन्हीं तीन दिन सुबह पांच बजे मंगला आरती में हजारों लोग शामिल होते हैं

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